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समाज

पीरियड्स के दौरान मंदिर नहीं जाना!

ईशा भाटिया सानन
१८ अक्टूबर २०१८

कहते हैं कि बच्चे भगवान की देन होते हैं. और ये तभी होते हैं जब महिलाओं को पीरियड्स होते हैं. इस तर्क से तो पीरियड्स भी भगवान की ही देन हुए. तो फिर पीरियड्स में मंदिर क्यों नहीं जाना चाहिए?

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तस्वीर: Reuters/A. Dave

मैं 11 साल की थी जब पहली बार अपने कपड़ों पर खून का दाग देखा. स्कूल में दूसरी लड़कियों से पीरियड्स के बारे में सुन चुकी थी, इसलिए अंदाजा था कि क्या हो रहा है. लेकिन घबराहट फिर भी थी. उंगली कटने पर खून देख कर घबराहट होने लगती है, तो यह तो फिर काफी बड़ी बात थी. हर लड़की की तरह मैंने भी सबसे पहले जा कर अपनी मां को इस बारे में बताया. मां ने एक पुराना सा कपड़ा हाथ में थमा दिया और कहा, "तारीख याद रखना और मंदिर मत जाना."

मैंने उम्मीद की थी कि मां मुझे बिठा कर विस्तार से बताएंगी कि मेरे साथ हो क्या रहा है. "उन दिनों" के बारे में मुझे जरूरी जानकारी देंगी. लेकिन मां के लिए सबसे जरूरी जानकारी यही थी कि मंदिर नहीं जाना है. मंदिर का पीरियड्स से क्या लेना देना है, यह बात मुझे ना तो तब समझ आई थी और ना ही उनके पास आज भी इसका कोई जवाब है.

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ईशा भाटिया सानन

महीने दर महीने मां मुझे कुछ और "जरूरी" बातें सिखाती रहीं, जैसे अचार के मर्तबान को हाथ नहीं लगाना है, पापड़ को नहीं छूना है, वगैरह वगैरह. उनकी इन जरूरी बातों में कभी मेरे शरीर का कोई जिक्र नहीं होता था. स्कूल में साइंस की क्लास में सीखा था कि किसी भी दावे को सिद्धांत तभी माना जा सकता है, जब बार बार टेस्ट कर के उसे सिद्ध किया जा सके. इसलिए हर महीने पीरियड्स के दौरान अचार और पापड़ पर टेस्ट शुरू किया. साल भर बाद भी ना पापड़ का रंग बदलता हुआ दिखा और ना ही अचार को कुछ हुआ. मां के दावे गलत साबित हो रहे थे. ऐसे में मंदिर ना जाने वाली बात पर भी भरोसा करना मुश्किल हो गया था.

पवित्र अपवित्र का चक्कर

आज इतने सालों बाद भी मेरा यह सवाल कायम है. और आज यह देख कर अच्छा लगता है कि यह सवाल उठाने वाली मेरे जैसी हजारों लाखों और भी लड़कियां मौजूद हैं. सोशल मीडिया पर जब यही सवाल हमने आम लोगों से किया, तो कई तरह के जवाब आए. अधिकतर लोगों का कहना था कि महीने में चार-पांच दिनों के लिए लड़कियां "अपवित्र" हो जाती हैं. ऐसे में उन्हें मंदिर नहीं जाना चाहिए. कइयों ने तो रसोई में जाने पर भी आपत्ति जताई.

बहुत से लोगों ने यह भी कहा कि अगर बड़े बुजुर्ग कोई नियम बना गए हैं, तो किसी वजह से ही बनाया होगा. यह बात मुझे तार्किक लगी. जिस जमाने में ऐसे नियम बने होंगे कि औरत जमीन पर सोए, अलग कमरे में रहे, किसी भी "पवित्र" चीज को ना छुए, एक बार उस जमाने की तस्वीर उकेरने की कोशिश करते हैं. सोचिए आप एक ऐसे वक्त में रह रहे हों, जब ना बिजली हो, ना साफ सफाई की कोई सुविधा. नहाने के लिए नदी-तालाब में जाना पड़ता हो और शैंपू-साबुन को तो बिलकुल भूल ही जाइए. सैनिटरी पैड्स की भी तब तक खोज नहीं हुई थी.

ऐसे दौर में जीने के लिए आपको साफ सफाई से जुड़े कुछ नियम बनाने होंगे. कोई नहीं चाहेगा कि तालाब का पानी गंदा हो जाए. और अगर आप यह बात समझते हों कि इस दौरान महिला को आराम की जरूरत है, तो आप उसे कमरे में रह कर आराम करने की भी हिदायत देंगे.

अब लौटते हैं आज के जमाने में जहां आपके पास बाथरूम की भी सुविधा है और सैनिटरी पैड्स की भी. हाथ धोने के लिए साबुन भी है और सैनिटाइजर भी. तो इस दौर में क्या साफ सफाई के वही नियम लागू होते हैं, जिनकी तब जरूरत थी? जरूरत है तो सैनिटरी पैड्स को ले कर जागरूकता फैलाने की. सरकारी अस्पतालों में कंडोम और गर्भ निरोधक गोलियां मुफ्त में मिलती हैं. ऐसा ही सैनिटरी पैड्स के साथ भी करने की जरूरत है, ताकि कोई भी लड़की या महिला "अपवित्र" ना रह जाए.

लड़कियों को मंदिरों में आने से रोकने की जगह अगर यहां उन्हें सैनिटरी पैड्स बांटे जाएं तो शायद मंदिरों में उनकी आस्था और भी बढ़ जाएगी. इस सुझाव पर बहुत लोगों को आपत्ति हो सकती है लेकिन कहते हैं कि परिवर्तन ही स्थायी है. इसलिए बदलते वक्त के साथ खुद को और समाज के नियमों को बदलने में ही समझदारी होती है. और तब शायद हर मां अपनी बेटी से कह सके, "तारीख याद रखना और मंदिर जरूर जाना."

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